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Saturday, November 19, 2011

Stock_for_YOU Fwd: ।।अर्थकाम।।



बाजार चक्रव्यूह में, निकालेगा कौन!

Posted: 19 Nov 2011 05:51 PM PST


सच कहूं तो लोगों से आशा ही छोड़ दी है कि हमारी सरकार शेयर बाजार के लिए कुछ कर सकती है। इसलिए ज्यादातर निवेशक भारतीय पूंजी बाजार से निकल चुके हैं और पूरा मैदान विदेशी निवेशकों के लिए खाली छोड़ दिया है। बदला सिस्टम खत्म करने के बाद 2001 में ही संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) ने डेरिवेटिव सौदों में फिजिकल सेटलमेंट की जरूरत जताई थी। लेकिन दस साल बीत चुके हैं। सेबी फैसला भी कर चुकी है। बीएसई इसे अपना चुका है। लेकिन डेरिवेटिव सौदों पर एकाधिकार रखनेवाला एनएसई कुछ भी करने को तैयार नहीं है और सरकार मूक दर्शक बनी तमाशा देख रही है।

इसका भयंकर असर पड़ चुका है और इसने पूरी व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है। हम करीब पांच सालों से यह मुद्दा उठा रहे हैं। इन पांच सालों में भारतीय बाजार चार बार निचला सर्किट और एक बार ऊपरी सर्किट छू चुका है। इस व्यवस्था ने मुठ्ठी भर ताकतवर निवेशकों को फायदा पहुंचाया है, व्यापक निवेशकों को नहीं। अगर फिजिकल सेटलमेंट रहता तो बाजार की धौंकनी इतनी तेज नहीं चलती। बाजार के ऊपरी या निचले सर्किट तक जाने की गुंजाइश लगभग खत्म हो जाती। ऐसा इसलिए क्योंकि नकदी से संपन्न निवेशक कैश बाजार में वैकल्पिक गहराई पैदा करते हैं। उनकी सक्रियता किसी भी दिन नकद धन के मामले में एफ एंड ओ (फ्चूचर्स एंड ऑप्शंस) के पूरे वोल्यूम से ज्यादा हो सकती है। अभी तो एफ एंड ओ का इस्तेमाल कर बाजार में जबरदस्त उतार-चढ़ाव पैदा करना दुनिया का सबसे आसान काम बन गया है।

जो लोग 1980 से बाजार से जुड़े होंगे, वे बता सकते हैं कि कैश बाजार का वोल्यूम किसी भी दिन डेरिवेटिव सौदों में आज लगे नकद धन से ज्यादा हुआ करता था। आज तो डेरिवेटिव सौदों ने मोटे तौर पर ब्रोकर समुदाय की कब्र ही खोद डाली है। ज्यादा कैश वोल्यूम से डिलीवरी आधारित सौदों पर ज्यादा ब्रोकरेज मिलती है। इसके बजाय फ्यूचर्स में केवल एक पैसा मिलता है। इसमें झूठमूठ का अवांछित वोल्यूम खड़ा हो जाता है। एक्सचेंज इस ज्यादा वोल्यूम की फाइलें वार्षिक आय रिपोर्ट (एआईआर) में आयकर विभाग को टांसफर कर देते हैं और आयकर अधिकारी ब्रोकरों से जवाब-तलब करने लग जाते हैं। इसलिए ब्रोकर समुदाय के बीच जबरदस्त मारकाट मची है। छोटे ब्रोकर ग्राहकों को जमकर छका रहे हैं कि मुकदमेबाजी बढ़ गई है। इससे अंततः निवेशक दुखी से और दुखी होता चला जा रहा है।

हाल के एक इंटरव्यू में सेबी चेयरमैन यू के सिन्हा ने माना है कि भारतीय बाजार पर एफआईआई के अतिशय दबदबे का मुकाबला करने के लिए घरेलू तंत्र को बढ़ाने और रिटेल निवेशकों को वापस लाने की जरूरत है। वे चाहते हैं कि पीएफ व कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ईएसआईसी) का धन पूंजी बाजार में आए। लेकिन ऐसा तभी संभव है जब बाजार में निवेश व निवेशकों को भरपूर सुरक्षा मुहैया कराई जाएगी। पिछले दो सालों में 99 फीसदी रिटेल निवेशक अपनी 70 फीसदी पूंजी गवां चुके हैं। ऐसा पीएफ और ईएससीआई के धन के साथ भी तो हो सकता है।

इसलिए रिटेल निवेशकों के संरक्षण के लिए कुछ खास उपाय करने जरूरी हैं। मसलन, फिजिकल सेटलमेंट, नए आईपीओ की लिस्टिंग पर पहले दिन सर्किट ब्रेकर, मार्केट मेकिंग व मर्चेंट बैंकरों पर सही मूल्य खोजने की जिम्मेदारी और एक दिन में किसी स्टॉक को खरीदने पर लगी 10 फीसदी वोल्यूम की ऊपरी सीमा, जिसने बहुतेरे स्टॉक्स को एकदम गठिया का शिकार बना दिया है जो चल-फिर ही नहीं पाते। बीएसई ने डेरिवेटिव सेगमेंट में तरलता पैदा करने के लिए 100 करोड़ रुपए का जो पैकेज घोषित किया है, उसे जड़ हो चुकी सभी मिड कैप कंपनियां तक फैला देना चाहिए और अनिवार्य मार्केट मेकिंग लागू करने की कोशिश करनी चाहिए ताकि जॉबिंग और बाजार में जान आ सके। इसके लिए एसटीटी (सिक्यूरिटीज ट्रांजैक्शन टैक्स) को पूरी तरह हटाना जरूरी है क्योंकि टर्नओवर पर टैक्स और ऊपर से इनकम टैक्स देना निवेशकों पर बहुत भारी पड़ता है।

एफ एंड ओ सेगमेंट से 5 कंपनियों को बाहर निकाला जा रहा है। इनमें से दो कंपनियां – जिंदल साउथवेस्ट होल्डिंग्स और गीतांजलि जेम्स को तो हाल ही में एफ एंड ओ में लाया गया था। इन्हें वहां से हटाना अतार्किक नहीं है क्योंकि इस सेगमेंट में रहने की शर्तें तो पूरी होनी चाहिए। लेकिन उन निवेशकों का क्या होगा, जिन्होंने इनमें पोजिशन ले रखी है? अगर किसी कंपनी को एफ एंड ओ में लाया गया है तो कुछ तो न्यूनतम समय, जैसे तीन साल, उन्हें वहां रखना चाहिए ताकि निवेशकों को निकलने का मौका मिल सके। के एस ऑयल को अब एफ एंड ओ से निकाल लिया गया है और एफआईआई के सामने उससे निकलने के अलावा कोई चारा नहीं है भले ही इसके भाव एक-दो रुपए ही क्यों न हो जाएं। हमारा कहना है कि किसी भी स्टॉक को एफ एंड ओ में लाने से पहले कायदे से परख लेना जरूरी है।

इसी तरह सर्किट सीमा में मनमानापन चलता है। बहुत-सी कंपनियां ऐसी हैं जिनमें सर्किट सीमा बढ़ाकर 20 फीसदी कर दी गई और अगले ही दिन उन्हें ट्रेड टू ट्रेड में डाल दिया गया। कोई निवेशक बी ग्रुप के शेयरों पर कैसे भरोसा कर सकता है जहां कोई परिभाषित मानक ही नहीं हैं? तमाम निवेशकों का कहना है कि बी ग्रुप के सारे शेयरों की एक ही श्रेणी होनी चाहिए – ट्रेड टू ट्रेड, ताकि इनमें होनेवाले सारे खेल एकदम बंद हो जाएं और सारे निवेशक समान आधार पर इन शेयरों में निवेश करें। ट्रेड टू ट्रेड में जाने पर 100 फीसदी डिलीवरी लेनी या देनी पड़ती है। मुझे तो यह सुझाव बड़ा दमदार लग रहा है। इसके साथ ही कॉरपोरेट गवर्नेंस में ढील पर कंपनियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। अभी जिस तरह कंपनियां कायदे-कानून तोड़कर भी मौज करती रहती हैं, उसने भी निवेशकों को बाजार से दूर किया है।

ये सारे कदम बाजार को स्वस्थ बनाने के लिए जरूरी हैं। तात्कालिक बात करें तो मुझे बेहद आश्चर्य हो रहा है कि एफआईआई की कम बिकवाली के बावजूद बाजार इस कदर क्यों टूट रहा है। लेहमान संकट के समय अक्टूबर 2008 में एफआईआई ने 600 करोड़ डॉलर निकाले थे, जबकि अगस्त 2011 में उन्होंने 250 करोड़ डॉलर की ही बिकवाली की और निफ्टी 4730 तक गिर गया!!! नवंबर में भी एफआईआई की तरफ से ऐसी कोई भारी बिकवाली नहीं आ रही है। इसलिए मुझे लगता है कि कुछ निहित स्वार्थ इस समय अफवाहों से लेकर यूरोप के संकट का सहारा लेकर निवेशकों की भावनाओं से खेल रहे हैं।

हमारे आंकड़ों के अनुसार भारतीय कंपनियों को सितंबर 2011 की तिमाही में विदेशी मुद्रा दरों में अंतर के चलते 8500 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। यह सारा कुछ इतने खटाक से हुआ कि कंपनियों को हेजिंग का मौका ही नहीं मिल सका। दिसंबर तिमाही में ही कंपनियों को विदेशी मुद्रा नुकसान होने की आशंका है। हालांकि यह उतना चौंकानेवाला नहीं होगा। कॉरपोरेट क्षेत्र को हुआ विदेशी मुद्रा नुकसान अगस्त 2011 में एफआईआई द्वारा निकाली रकम से ज्यादा है। इसलिए कंपनियों को धन जुटाने के लिए ज्यादा शेयर गिरवी रखने को बाध्य होना पड़ा। फिर वे शेयर बाजार के गिरने से फंस गए। बहुतों को मार्जिन रकम न देने पर अपने शेयरों से हाथ धोना पड़ा। हमारी जानकारी के मुताबिक इस शुक्रवार, 18 नवंबर को एक बड़ी एनबीएफसी ने 45 से ज्यादा कंपनियों में मार्जिन कॉल दे डाली।

यह दिखाता है कि भारतीय शेयर बाजार की असली समस्या कहां है। हम इस बात को अनदेखा नहीं कर सकते कि कंपनियों के प्रवर्तक खुद बाजार में खेल करते हैं। ताजा घटनाक्रम दिखाता है कि ऑपरेटर तक कंपनी प्रबंधन की सक्रिय भूमिका के बिना क्यों किसी स्टॉक में हाथ डालने से हिचकिचाते हैं। इसलिए बहुत सारे मसले हैं जिनसे निपटना जरूरी है। बाजार की गिरावट के लिए अकेले एफआईआई को दोष देना सही नहीं है। यह एक दुष्चक्र है या कहें कि चक्रव्यूह है जिसे सरकार की सक्रिय भागीदारी के बिना नहीं तोड़ा जा सकता।

दिहाड़ी का चक्र

Posted: 19 Nov 2011 04:45 PM PST


सफर पर निकला मुसाफिर हूं। न संत हूं, न परम ज्ञानी। मेरे पास ज्ञान का खजाना नहीं जो आपको बांटता फिरूं। हर दिन बोता हूं, काटता हूं। दिहाड़ी का चक्र। जो मिलता है, उसे आप से साझा कर लेता हूं।

बदले जो बफेट भी तो हम क्यों नहीं?

Posted: 18 Nov 2011 08:38 PM PST


हर कोई अधीर है। किसी को धैर्य नहीं। फटाफट नोट बनाने की पिनक है। दो-चार साल क्या, लोगबाग दो-चार महीने भी इंतजार करने को तैयार नहीं हैं। जो लोग लांग टर्म हैं, वे एफडी और पीपीएफ में लांग टर्म हैं। शेयर बाजार में तो वे भी शॉर्ट टर्म हैं। लोग कहने लगे हैं कि वॉरेन बफेट का जमाना लद गया। दुनिया का यह सबसे कामयाब निवेशक भी अपनी सोच बदल रहा है। मसलन, पहले बफेट टेक्नोलॉजी शेयरों से दूर रहते थे। लेकिन इसी हफ्ते उन्होंने खुलासा किया है कि उन्होंने आईबीएम में 1200 करोड़ डॉलर (करीब 60,000 करोड़ रुपए) का भारी-भरकम निवेश कर रखा है।

यह भी कहा जा रहा है कि आज बिजनेस के तौर-तरीके एकदम बदल गए हैं। आर्थिक माहौल ज्यादा ही अनिश्चित और अस्थिर हो गया है। कभी नीचे तो कभी एकदम ऊपर। एकदम से ठंडा, एकदम से गरम। ज्वार-भाटा। फिर, दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थाएं आपस में जुड़ गई हैं। अमेरिका का संकट सारी दुनिया का संकट बन जाता है। इटली का डिफॉल्ट इंडोनेशिया के बाजार की चूलें हिला देता है। ग्रीस की परेशानी भारत को पसीना-पसीना कर देती है। बड़ी से बड़ी कंपनियां अचानक खाक में मिल जाती हैं। संरचनाएं इतनी तेजी से बदल रही हैं कि आप किसी भी विचार से चिपके नहीं रह सकते, क्योंकि पलक झपकते ही वो अप्रासंगिक हो जाता है।

ऐसे में वैल्यू निवेश और लांग टर्म का आखिर क्या मतलब रह गया है? जब सब क्षणभंगुर है तो शाश्वत का लफड़ा क्या! हमारे-आप जैसे निवेशकों की सोच यही हो गई। वैसे, अगर अपने यहां रिटेल निवेशक शेयर बाजार से दूर हो गए हैं तो उसकी एक वजह यह है कि 1991 से 2004 के बीच करीब 14-15 सालों तक सूचकांक कमोबेश एक ही स्तर पर स्थिर रहा। सबको लगने लगा कि इक्विटी से कमाई करने का एक ही तरीका है कि ट्रेडिंग करो, बराबर खरीदते बेचते रहो।

2003 के बाद हालात बदले हैं। बाजार ने बराबर रिटर्न दिया है। लेकिन इस दौरान उतार-चढ़ाव या वोलैटिलिटी भी जबरदस्त रही। कुछ को समझ में आ गया कि ट्रेडिंग के बजाय निवेश करने में फायदा है और वे इक्विटी में ज्यादा निवेश करेंगे लांग टर्म के लिए। लेकिन ज्यादातर निवेशक वोलैटिलिटी पर खेलना चाहते हैं। उनको लगता है कि कल किस कंपनी का क्या हो जाएगा, क्या पता। इसलिए शेयरों के रुझान को पकड़कर नोट बना लेने में क्या हर्ज है! वैसे, हमारा मानना है कि बफेट अब भी प्रासंगिक हैं। उनका सूत्र है – ऐसी कंपनियों में निवेश करें जिनका बिजनेस मॉडल मजबूत हो, जिनका प्रबंधन अच्छा हो और जो ऐसे भाव पर मिल रही हों, जहां से सुरक्षित अच्छा मार्जिन मिल सकता हो। अब ऐसी कंपनी चुनना ही तो असली चुनौती है बफेट साहब। खैर, कुछ फुटकर बातें जो हम इस हफ्ते पहले लिख-पढ़ चुके हैं…

  • जो लोग लाखों-करोड़ों का धंधा करने बैठे हैं, वे खबरें पाने के लिए नहीं, खबरें चलाने के लिए मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए कोई सोचे कि वो बिजनेस चैनल या अखबार से मिली खबरों के दम पर बाजार को मात दे देगा तो वह इस दुनिया में नहीं, मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की दुनिया में जी रहा है। हां, हम मीडिया से विश्लेषण का तौर-तरीका जरूर सीख सकते हैं। उन्हें देख-पढ़कर अपनी वित्तीय साक्षरता का स्तर उन्नत कर सकते। हम यकीनन शेयर बाजार के जरिए अपनी बचत को संपदा बनाने के काम में लगा सकते हैं। लेकिन उसके लिए नीर-क्षीर विवेक, तमाम उपलब्ध तथ्यों का विश्लेषण करने का कौशल हासिल करना जरूरी है।
  • मजदूरों की हड़ताल किसी भी स्वस्थ औद्योगिक माहौल में चलती रहती है। चलती रहनी चाहिए। आम बात है। तात्कालिक मसला है, सुलझ जाएगा। गौर करने की बात है कंपनी की लाभप्रदता और सतत विकास।
  • सबसे मुश्किल काम है होता है सही स्टॉक का चयन और उसमें हम बराबर आपकी मदद कर रहे हैं। आपको जमता नहीं तो आप भारी नोट खर्च करके यह सेवा औरों से ले सकते हैं। लेकिन वहां से भी बस इतनी ही गारंटी है कि आपका अनुभव 'लग गया तो तीर नहीं तो तुक्का' का रहेगा।
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